कविता – वृद्ध हो रहा हूं।
टूट रही है शाखें,
झड़ रही है पत्तियां,
धीरे धीरे…
चेहरे पर उभरती झुर्रियां,
आपस में लड़ रही है..
होता शिथिल तन,
पुनः बालक सा अब,
समृद्ध हो रहा हूं।
कंपने लगे हैं हाथ-पैर…
हां! मैं वृद्ध हो रहा हूं।।
कंघी केश बिखरने लगे हैं
सफेद होना है नियम,
धंसने लगी है आंखें भीतर,
जड़ें मजबूती है छोड़ रही…
उकेरे है जो साल मैंने,
जीवन की स्लेट पर,
उनसे आज प्रसिद्ध हो रहा हूं।
धीमी हुई चाल मेरी…
हां! मैं वृद्ध हो रहा हूं।।
धूंधला होने लगा है सवेरा,
स्मृति अभी बदली नहीं,
सावन सा योवन बीत रहा,
आता जो बसंत की तरह!
पल पल, लम्हा लम्हा बीते
सुख रहा तना हरा,
ठंडा मौसम सा घिरता…
माह वो सर्द हो रहा हूं।
झुकने लगी है भौंहें मेरी…
हां! मैं वृद्ध हो रहा हूं।।
रोहताश वर्मा ” मुसाफ़िर “