कविता — निडर बेटियाँ
शक्ति छंद
निडर बेटीयाँ
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सदा से जिसे था झुकाए रखा
बिना दाँव खेले विजय को चखा
चलेगा नहीं अब दमन का असर
सभी बेटियाँ अब गईं हैं निखर
अड़े थे कि अब जीतना है मुझे
गिराकर रहेंगे धरा पर तुझे
लगाए हुए थे तिलक भाल पर
अजब नाज़ था जीत की चाल पर
कहाँ अब नहीं हैं मुखर बेटियाँ
अखाड़ा चढ़ी हैं निडर बेटियाँ
अकड़कर भिड़े थे कि हैं हम ज़बर
गिरे धूल खाकर वहीं बेख़बर
अगर ये ज़माना कड़ा है बहुत
जिगर बेटियों का बड़ा है बहुत
सभी घर बनातीं सुघर बेटियाँ
दिलों को लुभातीं अमर बेटियाँ
— क़मर जौनपुरी