कविता झूठ नहीं होती
तुम जो लिखती हो वह झूठ है
वृक्ष – सा दिखता महज एक ठूंठ है,
किन्तु झूठ लिखा नहीं जा सकता,_” कहा मैने!”
सागर गागर में समा सकता है!
गूंगा महफ़िल में गा सकता है!
तो फिर झूठ ,
झूठ भी कविता में आ सकता है,”उसने कहा”
मैंने उत्तर दिया_
“झूठ में कविता हो सकती है
किन्तु कविता झूठी नहीं हो सकती.”
झूठी कविता पढ़ी जाय, संभवतः
किन्तु झूठी कविता लिख पाना स्वयं एक प्रश्नचिह्न है
दिन रात और रात दिन है
जो लिखता है
वह झूठा हो सकता है..
किन्तु जो लिखा गया है
वह झूठ नहीं हो सकता..
कविता सच्चाई है
जैसे प्रेम सच्चाई है..
कविता भी प्रेम है और प्रेम सत्य है..
प्रेमी झूठा हो सकता है,
किन्तु प्रेम नहीं
यों ही..
कविता सच्चाई है
किसी के यातनाओं के कठोर अनुभवों की परछाई है
किसी की कल्पनाओं की अनमोल साधना की गहराई है
जैसे कलियां ठूंठ नहीं हो सकती..
कविता भी झूठ नहीं हो सकती…
©~ प्रिया मैथिल~