कविता- जनजातीय विद्रोह
शोषणकारी भेदभाव की,
ब्रिटिश नीतियों को ललकारा।
जनजातीय विद्रोह रूप में,
इतिहास कहे किस्सा सारा।।
जंगलों से कच्चे माल हेतु,
औद्योगिक क्रांति समर्थन में।
बनी नीतियों ने क्रोध भरा,
सब आदिवासियों के मन में।।
कृषि नीति पेश हुई ऐसी,
पारंपरिक भूमि ह्रास करे।
अपनी ही धरती पर यह तो,
लोगों को देखो दास करे।।
अंग्रेजों की चाल पीर बन,
आदिवासियों को लूट रही।
प्रति व्यक्ति आय घटती मानों,
क़िस्मत लोगों की फूट रही।।
ब्याज दरों में वृद्धि हुई फिर,
साहूकारों ने दर्द दिया।
भूमिहीनता और ग़रीबी,
दोनों ने मिलकर गर्द दिया।।
ईसाई मिसनरियों ने भी,
धर्म-प्रथाओं को तोड़ दिया।
जनजातीय विद्रोह की ओर,
सभी कारणों ने मोड़ दिया।।
वन नीति लार्ड डलहौजी की,
हानि वनों को पहुँचाती थी।
रेलवे लाइनों खातिर भी,
लकड़ी काटी जाती थी।।
रेल मुंबई से ठाणे तक,
ले जाने को हर काम किया।
सागौन जहाजों ने भी तो,
जंगल-जंगल से दाम लिया।।
कोल खोंड मुंडा संथाल सब,
विद्रोह हुए आज़ादी को।
अंग्रेजों से लड़े बचाने,
वन जन धरती आबादी को।।
सासन वीर सिंह संथाली,
बिरसा मुंडा नाम सुने हैं।
आदिवासियों ने जो अपने,
नेता मतकर आम चुने हैं।।
आर.एस. ‘प्रीतम’