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16 Jul 2021 · 8 min read

कविता का जन्म

कविता का जन्म
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बस तीन -चार दिन पहले की बात है, जब मैं कार्यालय से घर वापस आया, तो देर शाम का वक़्त हो चुका था। घर आते ही मैंने पत्नी को आवाज लगाई तो पता चला कि वो बगल के ही चौक पर सब्जी लाने हेतु गई हुई है। कुछ ही समय पश्चात वो सब्जियों से भरे झोले लटकाये घर में प्रवेश की तो उसके चेहरे पर बेचैनी और घबराहट के भाव स्पष्ट झलक रहे थे। मैंने जोर देकर पूछा कि बताओ तबीयत तो ठीक है, तुम्हारी। तो वो बोली कि मेरा तो सिर चकरा रहा है, थोड़ा स्थिर तो हो जाने दो, फिर बताती हूं। क्या बात हुई है ? मैंने उसे पानी भरा ग्लास हाथ में पकड़ाते हुए बोला कि थोड़ा आराम कर लो पहले । जल पीने के पश्चात्‌ स्थिर होकर वो बोली..
आज चौक के पास ही सड़क पर एक अजीब वाक़या देखने को मिला जिससे दिल बहुत घबरा सा गया है। बीच सड़क पर गोश्त की दुकान के बिल्कुल पास ही एक कसाई और बकरे के बीच अजीब खींचतान चल रही थी। कसाई बकरी के बच्चे को गर्दन में रस्से बांधकर बड़ी बेरहमी से खींच रहा था।वह बकरे को रस्से से खींचते, घिसियाते अपने मटन की दुकान पर ले जाना चाह रहा था,परंतु दोनों के बीच एक युद्ध सी स्थिति बन गई थी।
दृश्य बड़ा ही मार्मिक और कारुणिक था। बकरा अब एक कदम भी आगे चलने को तैयार नहीं था और अपने स्थूल शरीर को कड़ा करते हुए पूरा अकड़ सा लिया था, साथ ही उसने अपने सभी टाँगों को मोड़कर धरती पर इस तरह चिपक गया था जैसे रावण की भरी सभा में अंगद ने अपनी पांव धरती पर जमा दिए हो। कसाई भी हार मानने को कहाँ तैयार बैठा था, उन्होंने रस्से की डोर पर ज्यादा जोर लगाकर खींचना शुरू कर दिया। वह जब जबरन रस्सा खींचता तो बकरे का जबड़ा रस्सी की फांस में थोड़ा उपर की ओर मुड़कर उखड़ा सा जा रहा था, फलस्वरूप वो क्रंदन स्वर में मिमीयाता लेकिन फिर भी अपनी जगह से हिलने- डुलने के लिए तैयार नहीं था। बकरा अपने अस्तित्व के बचाव हेतु संघर्षरत था जबकि कसाई अपने उद्देश्य को पूरा करने के लिए जी जान लगाए हुए था।
इसके पश्चात मेरी पत्नी वहां के दृश्य से विचलित होकर अपनी स्कूटी स्टार्ट की और सब्जी लेकर सीधे घर चली आई, लेकिन उसके मन-मष्तिष्क में वहाँ के सारे दृश्य-परिदृश्य घूम रहे थे और वह ये भी सोच रही थी कि उसके बाद क्या हुआ होगा ? क्या कसाई ने गोश्त की खातिर बकरे को मार डाला होगा, या उस पर दया कर उसे छोड़ दिया होगा। अंतिम परिणाम तो सबको पता होता है कि बकरे और कसाई की लड़ाई में वास्तविक जीत किसकी हो सकती है फिर भी वह अपने दिमाग में सम्भावनाओं का ताना-बाना बुन मन को तसल्ली देना चाह रही थी।
मैंने पूरी बात सुनी तो तो सोचा कि उस बेजुबान बकरे मौत के अत्याधिक सन्निकट होते हुए भी बीच सड़क पर कसाई के विरुद्ध एक खामोश युद्ध का एलान कर क्या हासिल करना चाहता होगा.. ? दर्दनाक मौत के चंगुल से तो वो बच नहीं पाया होगा..।
फिर ध्यान से सोचा तो पाया कि बकरा मौत अवश्यंभावी जानकर भी अपने मकसद में कामयाब हो गया प्रतीत होता है। वह पाशविक क्रूरतापूर्ण अत्याचार के खिलाफ अपने गांधीवादी धरना आंदोलन के माध्यम से इस प्रकृति में और आसपास के वातावरण में अपनी मौत से पहले भावनाओं की एक सूक्ष्म तरंगों का सम्प्रेषण करना चाहता था, जिस मकसद में वह बहुत हद तक कामयाब हो गया था, जो कि मेरी पत्नी के माध्यम से मुझ तक पहुंचा और मुझे उस पाशविक अत्याचार के खिलाफ कुछ लिखने को विवश किया।
मैंने कलम उठाई और सारी घटनाओं को एक काव्य के रूप में व्यक्त करने का प्रयास करने लगा।
मैंने पाया कि उस बकरे की सारी मूल भावनाएं मेरे मन मस्तिष्क में प्रवाहित होने लगी और मैंने वो कविता_
“बेजुबान और कसाई” शीर्षक से प्रस्तुत कर दी, जो कि सच पूछा जाये तो एक कविता नहीं थी जो कि एक पूरी कहानी थी।
यह कहानी थी, एक सच्ची घटना पर आधारित भावनाओं की जीवंत कहानी, एक पूरे मौन वार्तालाप एवं याचना की पूरी कहानी जो कि उस बेजुबान बकरे और कसाई के बीच मौत के अंतिम पलों में घटित हुई थी, बकरे की याचनारूपी वो कहानी जो कविता के रूप में जन्म ले चुकी थी और मैंने इसे साहित्यपीडिया हिन्दी में शीर्षक” बेजुबान और कसाई” के नाम से अपलोड कर दिया। कविता की पंक्तियाँ इस प्रकार रची गई।

“बेजुबान और कसाई”
~~~~~~~~~~~~~
(एक याचना)
बीच सड़क पर डटे,बेज़ुबान बकरे और कसाई,
हो रही थी मौनभाव में, अस्तित्व की लड़ाई ।
कसाई डोर खींच रहा, पर बकरे ने भी टांगे अड़ाई,
बेजुबान बकरे ने तब, मौनभाव में आवाज लगाई_

मृत्यपाश की डोर बांधकर ,
कहा ले जा रहे घातक अब तुम ?
बीच सड़क घिसियाते तन धन,
किसी अनहोनी से ग्रसित हूँ मैं तो,
तड़प रहा तन-मन,कण-कण।

मिमीयाते क्रन्दन स्वर में वो,
अटक-पटक धरा पर धर को।
प्राणतत्व किलोल रोककर,
प्रश्न अनुत्तरित मौनभंगिमा में,
करता अपने घातक हिय से _

मैं छाग बेजुबान छोटी सी काया,
भरमाती हमको न माया।
तृणपर्णों से क्षुधा मिटाती,
ना कोई अरमान सजाती,
मैं तो बुज़ हूं तुम क्यों बुज़दिल हो।

सुबह परसों जब नींद खुली थी,
देखा अपने देह गेह में।
वंचित था मैं मातृछाया से,
मन ही मन सिसकता तन मन।
छूटे मेरे प्राणसखा सब,
बिछुड़े मेरे उर के बांधव।

कल ही तेरे बालवृंद संग ,
प्रेम-ठिठोली की थी मैंने।
वो मेरे कंधे पर सर रख,
मौन की भाषा समझ रहा था।
दांत गड़ा मै उसे चिढाता,
वो मेरे फिर कान मचोड़ता।

उठापटक होता दोनों में,
वो मेरे फिर तन सहलाता।
प्यार की भाषा पढ़ते मिलकर,
आंख-मिचौली करते मिलकर,
कितना हर्षोल्लास का क्षण था।
स्नेहवृष्टि में दोनों भींगते,
शुन्य गगन आनन्द खोजते।

जुबां नहीं मेरे तन में है,
पर भाव नहीं तेरे से कम हैं।
देख रहा अब प्रभु दर्पण में,
अपने जीवन की परछाई को।
कतिपय अंत निकट जीवन का,
पूछ रहा फिर भी विस्मय से।

क्या तेरा मन नहीं आहत होता ?
मेरे प्राणों की बलि लेने से।
क्या तेरा तन नहीं विचलित होता ?
तड़पते तन में उठती आहों से।
माना व्याघ्र है निर्जन वन में,
तुम तो मनुज हो इस उपवन में।

पुछ तो आओ सुत स्नेहसखा से,
प्रेम सुधामयी उन कसमों को,
निर्दोष पलों की याद दिलाकर।
फिर प्राणों की आहुति लेना ।
तब तक मैं भी अपनी जिद में,
बैठा रहूंगा इस धरा पकड़कर ।

क्यों जिद है तुझे,मुझे हतने की,
वंश निर्मूल मेरा करने की।
छोड़ो अपनी जिद भी अब तुम,
बंधन तोड़ो मेरा अब तुम।
जब तुम मेरी पीड़ा समझोगे,
प्रभु भी तेरी पीड़ा समझेंगे।

जब तुम मेरी पीड़ा समझोगे,
प्रभु भी तेरी पीड़ा समझेंगे।

मैंने कविता तो प्रकाशित कर दिया और मैं और मेरी पत्नी इसे विभिन्न माध्यमों से शेयर भी कर दिए , तब मेरे मन में ख्याल आया कि क्या पाशविक क्रूरतापूर्ण अत्याचार के खिलाफ बकरे की भावनाओं का सम्प्रेषण तो हो गया लेकिन लोग इसे हल्के में लेकर छोड़ दिए होंगे। अब आगे की कहानी इस प्रकार है।
मेरी पत्नी, जो कि शहर के बीचोबीच एक इंटर विद्यालय में संगीत शिक्षिका है उसकी एक सहेली शिक्षिका साहित्यपीडिया पर कविताओं को नित्य-प्रतिदिन पढ़ती है और मैं जब भी अपनी कविता पोस्ट करता हूँ तो वह उसे ध्यानपूर्वक पढ़ती। उस दिन क्या हुआ जब मेरी पत्नी विद्यालय गई और शिक्षण कार्य के पश्चात मध्यांतर समय उसके समीप बैठी तो वो अपने चेहरे पर अजीब सा भाव लाते हुए बोली कि आज आपके पतिदेव महोदय ने कैसी कविता पोस्ट कर डाली है पढ़ने के बाद से ही मन व्याकुल और विचलित सा हो गया है। लगता है कि अब मुझे मटन, चिकेन सब खाना बंद कर देना होगा, अब मुझसे ये सब न खाया जाएगा। मुझे लगा कि वो “बेजुबान और कसाई” कविता पढ़ कर उसके भावनाओं के तार भी उस घटनाक्रम के मूल पात्र बकरे की मूल भावनाओं से प्रभावित और आहत हो रही थी।
प्रश्न उठता है कि मैंने तो ये कविता “बेजुबान और कसाई” के नाम से रचना जो की, तो मुझमें भावनाओं का अंतरण कहाँ से हुआ ? क्या मेरी पत्नी द्वारा जिक्र घटनाओं से वो बकरे की मूल भावनाएं मुझमें स्थानांतरित हुई, जिसका सम्प्रेषण बकरे द्वारा आसपास के वातावरण और ब्रह्मांड में किया गया होगा ? यदि गहन ध्यान से सोचेंगे तो उत्तर मिलेगा हाँ, मूल भावनाएं तो उस बकरे की ही थी जो उस मरनासन्न बकरे से मुझमें स्थानांतरित हुई, मेरी पत्नी तो एक माध्यम मात्र बनी।
वो बकरा जो कि मौत के बेहद करीब होकर भी वस्तुतः गांधीवादी धरना देकर दुनियां को यह संदेश देने में सफलता पा लिया था , कि मैं भी एक मासूम बेजुबान निर्दोष पशु हूँ और मेरा भी इस धरा पर जीने का उतना ही अधिकार है जितना कि मनुष्य सहित अन्य जीव-जंतुओं का।
प्रश्न उठता है कि क्या इस प्रकार भावनाओं का स्थानांतरण सम्भव है तो उत्तर मिलेगा, हाँ।
भावनाओं का अन्तरण और आदान-प्रदान एक स्थान से दूसरे स्थान पर, एक प्राणी से दूसरे प्राणी में, भगवान से भक्त में, या भक्त से भगवान में आसानी से पर इतने गोपनीय ढंग और सूक्ष्म तरीके से होती है कि हम जान भी नहीं पाते।
यह संसार भावनामय है, हम भावनाओं के धरातल पर विकसित होते हैं तथा भावनायें ही हम सभी के जीवन को पुष्पित एवं पल्लवित करती है। अच्छी भावनाएँ कभी मरती नहीं है और सूक्ष्म तरंगे बनकर इस धरा पर विचरती रहती है और सत्वगुण प्रबल करती और ठीक उसी प्रकार बुरी भावनाएं भी हमारे बीच धरा पर तमोगुण बनकर उभरती है।
अब एक मौलिक प्रश्न उठता है कि किसी पशु के गर्दन पर छुरी या अन्य किसी घातक हथियार से वार कर अथवा अन्य किसी क्रूरतम तरीके से हत्या की जाती है तो हत्या के समय जो हृदयविदीर्ण करने वाली वेदनारुपी भावनाओं की सुक्ष्म तरंगे उत्पन्न होती है वह एक तो उस पशु के शरीर की प्रत्येक कोशिकाओं में संचित होने के साथ ही पूरे वातावरण में सुक्ष्म तरंगों के रूप में विद्यमान हो जाती है, तो क्या इस तरह तैयार किया गया पशु मांस मनुष्य के शारीरिक विकास के साथ-साथ मानसिक विकास के लिए सही मे लाभदायक है या नहीं, ये तो गहन मनोवैज्ञानिक शोध से ही पता चल पाएगा लेकिन इतना तो तय है कि यह मनुष्य के आध्यात्मिक उन्नति में सहायक नहीं हो सकता।
भावनाओं का खेल है जीवन। हम अपनी भावनाओं को जितना ही परिष्कृत करेंगे उतना ही ज्यादा हमारा जीवन दर्शन उन्नति की दिशा में अग्रसर होगा। प्राकृतिक सान्निध्यता, निर्दोष और निरीह जीव-जंतुओं के प्रति दया, करुणा की भावना, भजन, स्वस्थ संगीत, चित्रकला, ध्यान और योग आदि मनुष्य में भावनाओं को परिष्कृत और परिमार्जित करने का काम करती हैं जबकि भौतिक सुखों की अत्यधिक चाहत में दया, करुणा की भावनाओं को भुला देना परिवारिक, सामाजिक परिवेश से दूर रहना आदि हमारे जीवन की भावनाओं को रुक्ष बनाने का काम करते हैं जिससे मनुष्य के आध्यात्मिक मूल्यों में गिरावट देखने को मिलती है और मनुष्य मानसिक कष्ट और अशांति से घिरता चला जाता है।
हमारे मंदिरों ,मस्जिदों,चर्च और गुरुद्वारे में साक्षात ईश्वर के दर्शन तो नहीं होते यद्यपि मनुष्य अपने जीवन की भावनाओं को परिष्कृत कर ईश्वर से अपना संबंध स्थापित करने के लिए परिश्रमरत रहता है, जिससे कि हमारी मन की उर्जा शक्तिशाली हो उठती है और हम ईश्वर का अनुभव या आत्म साक्षात्कार कर पाते हैं।
अंत में मैं कहना चाहूँगा कि कहानी के निष्कर्ष संबंधित विचार और भावनायें मेरे खुद के हैं और इसे पढ़कर या इस पर चिंतन कर यदि किसी व्यक्ति की सुकोमल भावनायें प्रभावित हुई हो या उसे ठेस पहुंची हो तो इसके लिए मैं क्षमा प्रार्थी हूँ, साथ ही यदि किसी पाठकगण की भावना परिष्कृत होकर आध्यात्मिक उन्नति की ओर अग्रसर हुई हो तो इसके लिए मैं अपने प्रभु को नमन करना चाहूँगा।
यह थी एक बेबस बकरे के जीवन के अंतिम पलों में उपजी मनोव्यथा की कहानी जिन्होंने एक कविता का जन्म दिया। ये कहानी आपको कैसी लगी अपना बहुमूल्य सुझाव अवश्य दें।
शिक्षा :- मनुष्य के लिए शाकाहार सर्वोत्तम आहार है |

मौलिक एवं स्वरचित

© ® मनोज कुमार कर्ण
कटिहार ( बिहार )
तिथि – १६ /०७/२०२१
मोबाइल न. – 8757227201

12 Likes · 18 Comments · 1863 Views
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