!! कविता-कामिनी !!
!! कविता-कामिनी !!
मुतासिर था खूब उसकी खूबसूरती से
खूबियों की खान वो ख्वाबों में सदा
हंसती मुस्कुराती खिलखिलाती थी
आसमां में तारों की तरह टिमटिमाती थी
संजोता था सपने कि समा जाऊँगा
उसी की दुनिया में जहां से वो आई थी
आइने में भी उसी की तस्वीर दिखती थी
अर्धनारीश्वर जैसी तो बिल्कुल भी नहीं
अपितु वो ही वो दीखती थी
मोहब्बत बेशुमार थी हमारी
कि वो बेशुमारी सी
रोम रोम में समाई
ऐसी बिमारी थी
दवा दारु कुछ न था उसका तोड
क्योंकि वो तो मोहब्बत की बिमारी थी
जागते उठते बैठते हर वक्त
ताउम्र उसी को सोचता रहा
इत्तेफाक से कभी
उसको पाया भी था
हर पल पलकों तले
बिछाया भी था
न जाने कहां चली गई वो
चहेती जिन्दगानी थी
भरपूर शिद्दतें करता हूँ
अभी भी, कि
उसकी एक झलक जो मिल जाए
तो तस्वीर खींच लूं उसकी
और इत्मिनान से निहारता रहूँ
लेकिन चारों तरफ देख
उसको भरसक पुकारता रहा
पुकारे कभी न आई वो
क्योकिं वो कोई कामिनी नहीं
मेरी “कविताकामिनी” थी ।। (20.09.2019)