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17 Apr 2021 · 1 min read

कविता : कलियुग

सब खेल विधाता रचता है
स्वीकार नहीं मन करता है
बड़ों बड़ों का रक्षक कलियुग
यहां लूट पाट सब चलता है ||
जो जितना अधिक महकता है
उतना ही मसला जाता है
चाहे जितना भी ज्ञानी हो ,
कंचन पाकर पगला जाता है
चोरी ही रोजगार है जहाँ
अच्छा बिन मेहनत के मिलता है
बड़ों बड़ों का रक्षक कलियुग
यहां लूट पाट सब चलता है ||
हर ओर युधिष्ठिर ठगा खड़ा
हर ओर शकुनि के पासे हैं
ईश्वर अल्लाह कैद में इनके
ये धर्म ध्वजा लेकर आगे हैं
कृतिमता आ गई स्वभाव में
अब सब कुछ बेगाना लगता है
बड़ों बड़ों का रक्षक कलियुग
यहां लूट पाट सब चलता है ||
भीड़ बहुत है पर इन्सान नहीं
शहर सूना सा लगता है
स्नेह और ईमान पड़े फुटपाथों पर
बेईमान महलों में बैठा मिलता है
एक एक गली में सौ सौ रावण
कैसे सीता अब जीती है
न्यायालयों की झूठी कसमों से
परेशान गीता अब रोती है
लूट रहा जो सतत देश को
जन भाग्य विधाता लगता है
बड़ों बड़ों का रक्षक कलियुग
यहां लूट पाट सब चलता है ||

Language: Hindi
1 Like · 3 Comments · 686 Views
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