कविता।
एक आम इंसान को फिर खास बनने न दिया।
खुद को संभाला बहुत पर ज़ख्म सिलने न दिया।
कैसा ये इम्तिहान है जिसमें जीतना मुमकिन नहीं;
इक कली को फूल बनकर क्यों खिलने न दिया।
आती हैं मुश्किलें हर किसी की राह में गर देखो तो ;
गैरों में रहकर खो गए अपनों से भी मिलने न दिया।
जो हुआ अब तक देखा और समझा हम सबने मगर;
होगा न दौबारा कभी ऐसा वादा कभी करने न दिया।
हैं अश्क आंखों में मगर अश्कों से क्या है हासिल;
मौत को जिसने गले लगाया उसे फिर उठने न दिया।
काश ! कोई ऐसा दौर आ जाए ज़िन्दगी में इस बार;
हम देखे किसी ने दिया हाथ किसी को गिरने न दिया।
कामनी गुप्ता***
जम्मू !