कविताएँ —– महके महके आशियाने हो गये , नेकियाँ दिल में..,फूलों की खेतियाँ
महके महके आशियाने हो गये |
चिड़िया के बच्चे सियाने हो गये ||
हर तरफ हैं प्यार की ही खेतियाँ |
नफरतों के अब जमाने हो गये ||
जेब में जो चार पैसे आ गये |
उनके तीखे फिर निशने हो गये ||
अपना कहकर लूटते थे जो हमें |
हमारी बारी आई तो बेगाने हो गये ||
उसने पलभर को जो थामा हाथ को |
सारे मंजर फिर सुहाने हो गये ||
हमने उनके नाम नज्में क्या लिखीं |
लोग कहते हैं दीवाने हो गये ||
सत्ता की जयकार सीखी हमने तो |
काम सारे बिन बहाने हो गये ||
इस नोटबंदी से दर्द लगे है देश में |
बंद चोरी के मुहाने हो गये ||
नेकियाँ दिलमें काम भले जिनके |
जमाना संग संग चले उनके ||
जिनका कोई भी दोष नहीं था |
बस्तियों में घर जले उनके ||
झुक कर जो जो चले जग में |
हार फूलों के गले पड़े उनके ||
रुतबे थे बड़े जमाने में जिनके |
खोट्टे सिक्के भी चले उनके ||
सियासत थी हाथ जिनके |
सूखे बाग़ भी फूले फले उनके ||
जो चले थे जग में रौशनी लेकर |
दर्द अँधेरा रहा तले उनके ||
फूलों की खेतियाँ
नीचता की हदें लांघ रहे हैं जो
पशुता को भी लांघकर निकल गये हैं आगे उनकी नीचता को
कभी भी सम्बोधनों में नहीं बाँधा जा सकता
शब्द बौने हो जाते हैं |
गलियों के आवारा कुत्ते भी तो
अपने मोहल्ले के लोगों की गंध पहचानते हैं
वे भी यूं ही उन्हें काटने के लिए नहीं दौड़ पड़ते
यह क्या विडम्बना है मनुष्य , मनुष्यता की गंध नहीं
पहचान पा रहा है |
आज कितने ही दरिन्दे मनुष्यता के आंगन में
कैक्टस की तरह उग आये हैं
जो मनुष्यता के आंगन को लहूलुहान करने पे उतारू हैं |
आज समय की मांग है कि
इन कंटीले कैक्टसों से आंगन बचाया जाये
ताकि यह दुनिया जीने के काबिल बनी रहे
आओ मिलजुल कर कैक्टस उखाड़ें और फूलों की खेतियाँ करें ||