कल रहूॅं-ना रहूॅं…
कल रहूॅं-ना रहूॅं…
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‘पिता’ कहे , सुन ‘पुत्र’ तू मेरा;
तू देखे , नित ही ‘नया-सबेरा’;
चाहूॅं मैं,सुखद हो तेरी ‘जिंदगी’;
मैं हर-पल साथ रहूॅं ,सदा तेरा;
हमेशा यही,निज मन कहे मेरा।
पर क्या करूं; कल रहूॅं-ना रहूॅं…
आओ आज, मन की बात कहूॅं;
दुनियां है जालिम, तू नादान हो;
चाहता,पूरे तेरे सारे अरमान हो;
कोई चिंता न तुझे हो,जो मैं रहूॅं;
तेरे खातिर ही मैं,सारा कष्ट सहूँ।
पर, उम्र हो गई; कल रहूॅं,ना रहूॅं…
आओ सुन लो,मेरा ये भी संदेश;
किसी से मत रख , ईर्ष्या व द्वेष;
बदलो स्वभाव से, निज परिवेश;
याद रख तू , मेरी ये बात विशेष;
हो रही अब, मेरी आयु यह शेष।
क्या पता,मैं तो;कल रहूॅं,ना रहूॅं…
जानो तुम , ये बात भी अब मेरी;
धैर्य रखना, ‘जीवन’ में है जरूरी;
दुख-दर्द भी , सताएंगे ही जरूर;
तुम संभलना व सब संभालना;
मैं तो इसलिए तुम्हें, ये बात कहूॅं।
क्या ठिकाना; कल रहूॅं, ना रहूॅं…
सत्य आगे ही, कभी झुकना तुम;
प्रगति पथ पे,कभी न रुकना तुम;
कर्तव्य पथ पे ही , हमेशा चलना;
मानना जरूर, जो समझा रहा हूॅं;
ये मत कहना की , कैसे कष्ट सहूॅं।
मेरा क्या अब; कल रहूॅं, ना रहूॅं…
सुन ‘सुपुत्री’ तू भी,एक बात मेरी;
दिल’ में दबी है जो,जज़्बात पूरी;
जब कभी तुम, पिया घर जायेगी;
वहां तू ससुर रूपी , पिता पाएगी;
मैं कभी जुदा नहीं , सदा साथ हूॅं।
पर वक्त का क्या;कल रहूॅं,ना रहूॅं..
कल रहूॅं,ना रहूॅं………
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स्वरचित सह मौलिक
……✍️पंकज ‘कर्ण’
……. . …कटिहार।।