कल रहूॅं ना रहूॅं !
कल रहूॅं ना रहूॅं !
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बचपन से ही कितने ,
ख़्वाब संजोए थे हमने !
अपनों के संग मिलकर ,
अनेक सपने बुने थे हमने !!
बड़ी ही शिद्दत से राहों के ,
सारे कंटक चुने थे हमने !
धीरे-धीरे कर्तव्य – पथ पे ,
कदम अपने बढ़ाये हमने !!
मुद्दत बाद उन सपनों में से ,
थोड़े-बहुत सपने हुए हैं पूरे !
पर अब भी ढ़ेर सारे सपने ,
रह ही गए हैं आधे – अधूरे !!
अब बचे ज़िंदगी के चन्द हिस्से ,
उसी में पूरे करने अनेक किस्से !
क्यों नहीं उसे आज ही पूरे कर लूॅं ,
क्योंकि क्या पता, मैं कल रहूॅं ना रहूॅं !!
अभी इन लम्हों में ढूंढ़नी है ज़िंदगी ,
हर लम्हे चीख-चीखकर ये कह रही !
हॅंसी-खुशी से जी लो अपनी ज़िंदगी ,
दूर ना हो जीवन से प्यार रूपी बंदगी !!
जहाॅं भी मैं जाऊं, नई छाप छोड़ जाऊं ,
अपने सत्कर्मों से कुछ ख़ास कर जाऊं !
इस पापी दुनिया में कुछ पुण्य कर जाऊं ,
नेक कार्य की बदौलत कुछ नाम कर जाऊं !!
कितनी आशाएं शेष रह गए जीवन में ,
जिसके बारे में सोचा था मैं बचपन में !
असहायों का भी कुछ भला कर जाऊं ,
उनकी ऑंखोंं से थोड़ी आंसू पोंछ जाऊं !!
ईश्वर से हर दिन करता हूॅं यही प्रार्थना ,
हर प्राणी का ही कल्याण तू सदा करना !
क्या बताऊं तुझे ये भी है मेरा इक सपना ,
इन सपनों को मेरे जीते-जी ही पूरी करना !
क्योंकि क्या पता….मैं कल रहूॅं या ना रहूॅं !!
स्वरचित एवं मौलिक ।
सर्वाधिकार सुरक्षित ।
अजित कुमार “कर्ण” ✍️✍️
किशनगंज ( बिहार )
तिथि : 05/01/2022.
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