कल था एक गाँव
———————————-
छोड़ चुका हूँ गाँव कि जब मुझे कोई ज्ञान न था।
इस शह-मात वाली दुनिया का कोई भान न था।
सब सीधे सच्चे मन वाले ,सब अच्छे, सब सुंदर थे।
सब विश्वासी,सब सहयोगी,सब करनी के धुरंधर थे।
मेरे छोटे समझ में इतना था विशाल एक दर्पण सा।
दिश रहित मैंने मन मन सबका होगा मेरे दर्पण सा।
इतने बीते वर्ष आज भी मन में कसक किन्तु, रहता।
बार-बार ही इन आँखों में,यादों में है मेरा मन क्षत सहता।
बार-बार ही इन आँखों में हाँ, वह सब सजीव है हो जाता।
वह पगडण्डी, वह लघु पोखर, वह नदी ,पहाड़ी,पनसोता।
वह खेत, चौर, गोचर, मैदान ,वह रेतीले टीले,खाई।
साकार चला आता समक्ष हर पल की कथा अरे! भाई।
जब चला तलाशने मैं इसका कारण तो मन दु:खित हुआ।
किस भविष्य के लिए गाँव को छोड़ा था मन भ्रमित हुआ।
कहाँ शांति, सुख-चैन कहाँ है, कहाँ कौन ऐश्वर्य बता।
इतने भौतिक सरंजाम का कितना,क्या,सौन्दर्य बता?
मन अशांत है,व्यथित,क्लांत सा,सब कुछ में कुछ कम है।
और कहो हर संपदा के बीच भी हाय! कहो कुछ तो गम है।
सरल,सरस,समरस,विशाल मन ,छल-प्रपंच से कोसों दूर।
आत्मीय अपनत्व लबालब , स्नेह, नेह से भरपूर।
वह कम क्या है,अनबूझा है और रहेगा तय जानो।
बिना वजह ही छूट गया सब,सुख न मिला भी सच जानो।
बहुत विशाल सपने दिखलाये ,इस अबोध छोटे मन को।
क्या-क्या दु:ख तकलीफ दिलाये ,व्यथा,घुटन छोटे तन को।
कितने अच्छे गाँव,गाँव के लोग लोग के बोल बोल के अर्थ अहो।
उनका करके त्याग,लिए हम भाग, दंड क्यों हो न कहो।
अंतर्मन विचलित बिलकुल है,जाने? क्या अवसाद भरा है।
जो छूटा अनमोल हैं कहते, जो पाया सब मोल भरा है।
यही कचोटता है इस मन को बार-बार मन लौट रहा है।
थका थका सा तन हो जाता अद्भुद सा कुछ कौंध रहा है।
सौ भौतिक यहाँ,शुन्य है गाँव में किन्तु,पर अशांत मन।
रखते विश्वास परस्पर किन्तु,चाहे हो जितना गंवई मन।
तथाकथित इस सभी शहर में अणु जैसे छितराते हैं ये।
बात-बात पर अर्थ-भरा आर्थिक और छटा दिखलाते हैं ये।
——————————————————————-