पूँजीवाद का साँप
कल कोई सर्दी से काँपा रातभर,
कल किसी पर धन बरसता ही रहा ।
मिल गया एक को, जो थी चाहत उसे,
कोई इक रोटी को तरसता ही रहा ।
गेंद-बल्ले की कीमत लगी लाखों में,
पर किसानों का गेंहू तो सस्ता ही रहा ।
अर्द्ध नंगा, फटी हालत, देखकर,
बुर्जुआ सर्वहारा पे हँसता ही रहा ।
पूँजीवादी के कहने से चलता जो ‘साँप’,
वो बेचारे ग़रीबों को डसता ही रहा ।
— सूर्या