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18 Feb 2024 · 1 min read

कल्पनाओं के बीज

कुछ कल्पनाओं के बीज बोए थे मैंने ,
सोच यह अंकुर फूटेगे कभी ,
फलित पुष्पित होगे यह भी कभी ,
धर रूप विशाल वृक्ष का
सुकून की छाँव देगे कभी ,
फूल इनके मेरी जिंदगी को मेहकाएगे ,
फल इनके मेरे जीवन यापन काम आएंगे ।

माली सी देख रेख की इनकी,
मेहनत जल रूप में दी।

सूर्य की तपिश सा किया संघर्ष,
सपने देखे इनके बड़े होने के ।

परंतु बहुत देर बाद यह समझ आया
जिस फल की कल्पना कर रही हूँ मैं
जो बोया , वो उसका बीज नहीं
इस कारण , जो उगा
वो मेरी कल्पना अनुसार सटीक नहीं।

अब है दो रहे समक्ष
हाय रब!
किस राह को अब चुना जाए??
क्या सभी कल्पनाओं को मिट्टी में मिला दिया जाए?
या फिर कुछ नए बीज लाकर फिर बोए जाए ??
करने को तो किया जा सकता है यह भी ,
जो उगा ,
उसको रब की देन समझ ,स्वीकार कर लिया जाए।

जो मिट्टी में, इसको मैं मिलाऊँगी
अपनी मेहनत और समय को गवाऊँगी।

जो नया बीज फिर से उगाऊँगी,
बची कुची जिंदगी को भी दाव पर लगाऊँगी।

और जो इसको शांति से अपनाऊँगी ,
मतलब अपनी कल्पनाओं का गला स्वयं मैं दबाऊँगी।

❤️स्कंदा जोशी

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