कलयुग
कलयुग का यह कैसा रूप ,
हमारा भाग्य हमें दिखा रहा ।
विकास का चेहरा दिखाते हुए ,
यह तो पतन की ओर बढ़ रहा।
ज्ञानियों से सूना था इसका बखान ,
कल (मशीन) होगी इसकी पहचान।
मगर ‘कल’ के अधिक प्रयोग से ,
मशीन (कल) ही बन गया हर इंसान ।
‘कल ‘ नहीं हम तो इसे कहेंगे ,
कलह का भद्दा ,भयावह युग।
अनेक प्रकार के जघन्य अपराधों,
व्यभिचार , हिंसा का रोद्र युग ।
मानवीय मूल्य , सभ्यता,संस्कृति ,
संस्कार सब तो लुप्त हो गए ।
धर्म ने अधर्म का रूप ले लिया ,
साधू-संत चरित्रहीन औ व्यसनी हो गए।
शर्म-लिहाज़ ,मानवता , दया -करुणा ,
तो आज के मानव ने खो दी है।
नारी और प्रकृति का सम्मान /सुरक्षा ,
इसने पुर्णतः भुला दी है।
पाप की पराकाष्ठा इतनी हो गयी ,
धरा भी पापियों के बोझ से झुकने लगी
अति-शीघ्र लो प्रभु अब कल्कि अवतार !,
कलयुग केअत्यधिक संत्रास से थकने लगी ।