कलम कहती है सच
मेरी कलम बोलती है सच,
तभी वह कहते हैं कि अब बस।
यह मैं जो बनती जा रही हूं अब,
नहीं है इस पर मेरा कोई वश।।
हर दर से ठुकराई गई हूँ,
आस से बंधी डोर में जलाई गई हूँ।
नहीं थी ऐसी दुनिया, जब मैं नई थी।
एक राज है, बतलाऊं क्या!
मैं मरी नहीं थी, पर दफ़नाई गई हूँ।।
मंदिर, मस्जिद माथा टेका, नींवा होना ना ही आया।
जीवन, दुनिया, क्रोध,लोभ और धन का वैभव झूठी माया।।
मुझमें मैं हूँ, मैं हूँ मुझमें, मैं ही था और रहूँगा।
जीवन में जिसने अपनाया, आँखो का अंधा कहलाया।।
जीवन जैसे कटता पल छिन-छिन।
हरि रात्रि लगती है अंतिम।।
घमंड आलस ने घेरा है, बस चारों ओर अंधेरा है।
न मरता यह मन मेरा है, बस चिंताओं ने घेरा है।।
– ‘कीर्ति’