कलकल बहती माँ नर्मदा
कलकल बहती माँ नर्मदा !
कलकल बहती माँ नर्मदा ,
निश्चल छलछल अविरल धारा ।
अमरकंटक शिखर से वो निकलती ,
पूरब दिशा से पश्चिम को बहती ।
धरा पर उतरी शिवपुत्री बनकर ,
कोटि-कोटि तीर्थ है इसके तट पर ।
गंगा में तो है लोग, डुबकी लगाते ,
दर्शनमात्र इसके, पाप नष्ट हो जाते।
पाकर शिव का वरदान नर्मदा ,
पापनाशिनी बन गई है सर्वदा ।
निर्मल,पावन,पुण्य सलिला ,
सनातनियों की शान नर्मदा ।
रेत में इसके पाषाण जो मिलते ,
भोले शंकर हर पत्थर बसते ।
हर पत्थर शिवलिंग बन जाता ,
प्राणप्रतिष्ठा का प्रयोजन नहीं पड़ता ।
कंकड़- कंकड़ शंकर सम है ,
नर्मदेश्वर शिव का रुप अनुपम है ।
प्रलयकाल में, ये है अविनाशी ,
मोक्षप्रदायिनी सबकी अभिलाषी ।
विंध्य सतपुड़ा गिरिमाला में सजधज ,
सोनभद्र के संग प्रेम पड़ी थी ।
सखी जुहिला ने जब धोखा दिया तो ,
क्रोधित उल्टी दिशा को चली थी ।
चिरकुंवारी का व्रत लेकर उसने,
सागर समाहित वो चल निकली ।
सब नदी मिलते बंगाल की खाड़ी
वो अकेली अरब सागर को मिलती।
इकलौती नदी ऐसी है हिंद में ,
होती जिसकी परिक्रमा जग में।
मनुहारी नदी है ये निर्मल जल का,
कलकल निनादिनी पुण्यप्रदायिका।
नमामि नदी नर्मदे !
स्कंद-पुराणे रेवा-खंडे ।
ऋग्वेद वारण्ये पुण्या,
शत-शत नमन माँ नर्मदे !
मौलिक एवं स्वरचित
मनोज कुमार कर्ण