कर्मयोगी
दीपक बनकर जो जलता है,
उसे अंधकार क्या बुझा पाएगा?
बनकर प्रभाकर चमकेगा वह,
तम का तीव्र प्रभाव मिटाएगा।
घोर घटाएं अंधकार की,
चाहे घिर आए कितने हीं,
जलद बन कर गरजेगा वह,
जग का अखंड मौन हटाएगा।
बेमेल है इस जग की जोड़ी,
अखंड दुःख है, सुख है थोड़ी।
मानव है मानवता का चिर शत्रु,
क्या साथ कभी निभा पाएगा?
तप कर द्रव जो कुंदन हुआ,
आभूषण बन हीं चमकेगा
विषम परिस्थिति में भी धीर
वह अपना जौहर दिखाएगा ।
भले धार हो विपरीत दिशा में,
जी तोड़ वह पतवार चलाएगा
केवट है वह भवसागर का,
नैया सरिता पार हीं लगाएगा।
चाहे बन जाए जग उसका बैरी,
पर वह अपना धर्म निभाएगा।
बलिदान हो खुद वह पौरूष,
जग उपवन में सौरभ फैलाएगा।
निश्चेतन अर्थ, काम व मोह त्याग,
अकेला राही पथ पर निकल पड़ेगा।
क्रांति की दिव्य ज्योत जलाकर
जग को अमरप्रकाश दिखाएगा।
विनम्रता, त्याग, विवेक का मूल्य,
पुनः रणभेरी कुरुक्षेत्र में बतलाएगा।
प्रेम, मधुरता, सत्यता व परोपकार का
हर ओर यह “अमन” संदेश फैलाएगा।