कर्ण कुंती संवाद
पाँव रुके मन नहीं हैं माने
ब्रह्म पहर में चली मनाने
सरिता के तट पर जा करके
फैलाई आँचल खुद धरके
सत्य कहूँ या मांगू भीक्षा
तेरे हाथों कुल की रक्षा
सब पांडव हैं तेरे भ्राता
नाग कन्या मैं तेरी माता
राज-माता सुनो मेरी बात
कई समर की बीती रात
अपमानों को जब मैं झेला
राजसभा में हुआ अकेला
छोड़े सब योग्यता का साथ
तब थमा दुर्योधन ने हाथ
परम मित्र का मेरा नाता
नाग कन्या तू मेरी माता
तब की घड़ी में मैं विवश थीं
कुल के गरिमा के मैं बस थीं
कौमार्यावस्था में जन्म दिया था
दिनकर से तुमको पाया था
लोक लाज से तुझको त्यागी
मैं कुंती हूँ बड़ी अभागी
रास्ता मुझे दिखाओ जाता(पुत्र)
नाग कन्या मैं तेरी माता
जो आँसू अब बहते हैं
उसको कैसे तब रोकी थीं
ममता की जननी तुम हो के
आग में मुझको झोकी थीं
माँ तुझको मैं वचन हूँ देता
चार को प्राण दान हूँ देता
अर्जुन-कर्ण मृत्यु का नाता
नाग कन्या तू मेरी माता