कर्ज से मुक्ति चाहता हूं
कर्ज़ से मुक्ति चाहता हूं
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यह कैसी पढ़ाई है
जहां सब कुछ पढ़ना आसान तो है
पर तुम्हें पढ़ना ही नहीं समझना भी
मुझे लगता है पहाड़।
जितना पढ़ता हूं,
तुम्हें पढ़कर अपने अनुसार गढ़ता हूं।
उतना ही निरर्थक हो जाता है मेरा श्रम
क्योंकि जो आकार दिया मैंने
वैसा नहीं देखा, पाया तुम्हें।
नाराज होकर भी न कभी डांट पाया
दूर होने की सोच ने मुझे हीखूब मुंह चिढ़ाया,
तुम्हें हमेशा खुश और नाराज साथ साथ पाया,
मुझे खुद ने ही खूब भरमाया।
जाने कैसा किस जन्म का हमारा रिश्ता है
जिसने खुशियां तो खूब दीं
मगर खूब रुलाया भी, आंसू दिए, पीड़ा दी
न भरने वाले जख्म भी दिए,
पर इसका राज नहीं जान पाया।
इतना सब होकर भी न खीझ है न अफसोस
न दूर होने की तनिक ख्वाहिश
बल्कि ये सब क़र्ज़ जैसा लगता है
जो शायद किसी जन्म का मुझ पर शेष है तुम्हारा
जिसे इस जन्म में मुझे चुकाना ही है
हमारे रिश्ते का ही तभी तो नव अनुबंध है,
जीवन के उत्तरार्द्ध में तभी तो हो पाया नया संबंध है।
न जान, न पहचान, न दूर दूर तक कोई रिश्ता
फिर अचानक से एक सूत्र आया
और हमें जोड़ दिया रिश्तों के अटूट बंधन में,
जिसे तोड़ने हिम्मत नहीं है मुझमें
शायद तुम्हें भी नहीं होगी,
या तुम्हें अपने क़र्ज़ की पड़ी होगी,
जिसे तुम जानती तक नहीं
पर वापस पाने की उत्कंठा तो होगी ही
होनी भी चाहिए
मैं भी तो अब यही चाहता हूं
कर्जदार बनकर रहना भी नहीं चाहता
जीने की बात क्या करूं मरना भी नहीं चाहता
मरने से पहले तुम्हारे क़र्ज़ से मुक्त होना चाहता हूं,
छोटा हूं या बड़ा, बाप भाई बेटा संबंधी
जो भी रिश्ता रहा हो हमारा
उस कर्ज़ को निपटाकर
अब आजाद होना चाहता हूं।
आज के रिश्ते के इस बंधन का भी
फ़र्ज़ निभाकर जाना चाहता हूं,
बस जैसे भी हो तुम्हें खुशहाल देखना चाहता हूं
अब हर कर्ज से मुक्ति चाहता हूं।
सुधीर श्रीवास्तव
गोण्डा उत्तर प्रदेश
© मौलिक स्वरचित