करती है!
एक नज़्म आपके नज़र
इश्क के, आगोश में, खामोश वक़्त,
मुकर्रर, उकुबत को, कबूल करती है ।
यह जज़्बात है ,इश्क के जानिब से
ख्याल बारहा हमको स्थूल करती है।
इंसानी फितरत है ,करिश्मा तकाज़ा,
जो भी हो खैर सब फिजूल करती है ।
जिस के नाम से ,बदनाम होते हैं लोग,
इश्क है इसी तरह मकबूल करती है।
हमें अब तो, हवाले कर हवाओं के
सहजादी कुछ यूं वसूल करती है।
रोज छोड़े जाती है इक लिबास छत पर
बार बार वो इतनी सी भूल करती है।।
आब ओ हवा जहर को बसाया ऐसे
कि जिस्म से लगते ही शूल करती है।
उसके आते ही खिल जाती है बहारे
क्या मौसम भी ईश्क कबूल करती है।
दीपक झा रुद्रा