कमी सी है
सुन,
कुछ कमी सी है,आंखों में भी नमी सी है।
समय निकला जा रहा नित,मुट्ठी से रेत सा,
जिंदगी है रफ्तार में और सांसें थमी सी हैं।
खड़ी हो रही हर जगह गगन चुंबी इमारतें,
मगर खिसक रही मानों,पैरों तले ज़मीं सी है।
दिखतें हैं गुलाब शूलों में भी मुस्कुराते नीलम
लगता है उनकी भी हालत बिल्कुल हमीं सी है।
इंसान इंसानियत नोचता है बीच बाज़ारजिस तरह,
सुन,लहु धमनियां लग रहीं सबकी अब जमी सी हैं।
नीलम शर्मा