कभी पिता को भी पढ़ना
कभी पिता को भी पढ़ना
जिसने तुम्हें गढ़ा है
क्या उस पिता को तुमने पढ़ा है
कभी फुर्सत मिले तो पढ़ना
पढ़ना और समझना
उसके एक-एक हर्फ
उसके एक-एक शब्द
स्नेह में पगे होंगे
लेकिन अर्थ में ढके होंगे
जानना उन शब्दों को
जानना उन शब्दों के अर्थों को
जो चुप रहकर भी क्या-क्या कहते हैं
कितना तटस्थ रहते हैं
जैसे धीरे-धीरे बड़े होते हो
अपने पैरों पर खड़े होते हो
उसकी उंगली छूटती जाती है
तुम्हारी उड़ान कसमसाती है ।
उड़ान खुले आसमान की
उड़ान नए जहान की
उड़ान अपने मान की
उड़ान अपने शान की
उड़ान नए अरमान की
उड़ान नए परवान की
लेकिन तुम्हारी उड़ान में
खुले आसमान में
उड़ने की चाह को पंख लगाने वाला
तुम्हारा पिता आज भी वैसा है
जैसा उन दिनों था ।
जब तुम्हारे लिए घुटनों पर अश्व बना था
तुम्हारा और उसका स्नेह घना था
कभी कंधे की सवारी
कभी उंगली तुम्हारी
साथ पकड़ चला था
स्नेह से विश्वास पला था
कभी तुम्हारे विश्वास को
तुम्हारी चाह को ,आस को
टूटने नहीं दिया अपने समास को
जब कभी तुमने आघात पाया था
भीतर ही भीतर वह भी अकुलाया था ।
तुम्हारे बाल सुलभ मन में
जब भी कोई प्रश्न उमड़ आया था
बार -बार उत्तर देते वह कभी नहीं झुंझलाया था ।
जब तुमने अपने मुकाम को छुआ था
तब वह कितना गर्वित हुआ था
उसने कभी अपने स्वाभिमान को
कभी अपनी आन और शान को
तुम्हारे मुकाम के खातिर
ताक पर भी रखा होगा
क्या- क्या न सहा होगा ।
बाजार में मेले में
दुनिया के रेले में
भीड़ में झमेले में
साथ में अकेले में
तुम्हारे सारे सपने
सब उसके अपने थे
वह पिता ही था जिसके रहते
बाजार के सारे सामान तुम्हारे थे
पूरित हुए वे अरमान तुम्हारे थे
जिसने अपने स्नेह को
कभी शब्दों में बताया नहीं
प्रेम को कभी जताया नहीं
ऐसे अपने प्यारे पिता को
कभी फुर्सत मिले तो पढ़ना
पढ़ना और समझना ।
अशोक सोनी
भिलाई छ.ग.