कभी पत्नी, कभी बहू
कभी पत्नी, कभी बहू
कभी भाभी, कभी मामी।
और अक्सर देवरानी या जेठानी।
या फिर चाची, ताई।
सारे रिश्ते निभाते निभाते
और ज़िम्मेदारियाँ उठाते उठाते,
जब थक सी ज़ाती हैं बेटियाँ तब,
माँ बाप के, यानि अपने घर आती हैं बेटियाँ।
तरो ताज़ा होने को
रिचार्ज और रिफ्रेश होने को।
यहाँ आज भी वो नन्ही बिटियारानी है,
जहाँ चलती उसकी मनमानी है।
पीहर की दहलीज़ पर क़दम रखते ही,
आँगन में लगी कील पर,
ज़िम्मेदारियों का दुपट्टा टाँग देतीं है।
और पहन लेतीं हैं अपना बचपन।
घर के कोने कोने में घूमतीहैं।
अपनी कुछ यादें सम्भाल कर फिर रख देतीं हैं।
मर्ज़ी से, अपनी मर्ज़ी से,
सोतीं हैं, देर से उठतीं हैं।
सारा दिन अलसायी सी घूमती हैं।
माँ के हाथ का खातीं हैं,
भाई से चौराहे वाले की चाट मंगवाती हैं।
फ़ाइव स्टार होटल के कैंडल लाइट डिनर में भी
उसे वो मज़ा नहीं आता,
जो मायके में ज़मीन पर बैठ रोटी ख़ाने में पाती है।
कभी कभी शाम को छोटे भाई की साइकल पर
कॉलोनी का चक्कर भी लगा आती है।
दिन पंख लगा उड़ जातें है और वो सपने में रहती है।
तभी एक दिन, कोई पूछ लेता है- “अभी रुकोगी ना”!
बस तभी
माँ से कहती है, हो गये अब बहुत दिन
सब परेशान होंगे मेरे बिन।
माँ भी कहाँ रोक पाती है, जैसी तेरी मर्ज़ी कह कर अपने आँसु छिपाती है।
और बेटी नम आँखे लिये, जल्दी हीं फिर आऊँगी कह कर, ससुराल लौट आती है।
अपने घर संसार में, जिसमें है सबको उसका इंतज़ार।
और वो भी सारे रिश्ते निभाने, सारी ज़िम्मेदारियाँ उठाने फिर से है तैयार।
अनिल “आदर्श”