कभी उत्कर्ष कभी अपकर्ष
कारवां की चाह में, कंटक लगे उस राह में,
झड़ते पत्तों के माह में , इच्छाओं के दाह में _
वो कर दृढ़ निश्चय चल पड़ा !
व्याप्त जब था चतुर्दिक तमस, प्रेम की परिभाषा हवस,
घर नहीं मात्र इक कफस, मारपीट जब हो बहस _ –
वह बांध तोड़ बस बह गई !
डार्क वेब से बच गया, पर क्रूर राक्षस को जच गया,
शोर बेशक मच गया, जब दर्द ताल पर नच गया_
अबोध बालक भ्रष्ट वयस्क बन गया !
पतझड़ से बेरंग अंतराल में,पंछी विहीन इस डाल में ,
मूक कविता के जंजाल में ,इस दौर में – इस हाल में _
वे खा के नश्तर ढह गए,
न तैर पाए, बह गए ,
कंकाल मात्र ही रह गए ,
भौतिकवादी इस काल में !