कब लौटेगी फिर वही बात..
यूं ही बेफिक्री की जिन्दगी
मुक्त कदमों की सरगर्मी।
यहाँ से वहाँ तक सारे जहाँ में
अपना था आसमां अपनी जमीं।।
मित्र परिचितों की संगति और
झूमना गले में डाल हाथ।
जिससे चाहा कर ली बात
जिसका चाहा पकड़ लिया साथ।।
सरपट दौड़ती जिन्दगी में
ये कौन सा अवरोध आ गया।
बेफिक्र साँसों तक पे
सख्त पहरा बिठा गया।।
एक सूक्ष्मतम सा विषाणु
क्रूरतम कहर ढा गया।
हँसते मुस्कराते चेहरों को
गम के दल-दल में डुबा गया।।
कैसी है ये रहस्यमयी शाम
कितनी घनी अन्धेरी है रात!
हे आदित्य, हे परम प्रकाश..
कब लौटेगी फिर वही बात?
?
डा. यशवन्त सिंह राठौड़