कब भोर हुई कब सांझ ढली
कब भोर हुई, कब हुई दोपहर,
पता नहीं कब सांझ ढली
बीत गई उमरिया सारी,
असली बात न पता चली
भाग रहे थे मन के पीछे,
आत्मा की न बात सुनी
क्यों मनुज तन में आया था,
बात काम की नहीं गुनी
दौड़ रहा था तन मन धन पर,
इच्छाएं न भरपाईं
थक कर चकनाचूर हुआ,
लालसाएं न ठुकराई
जान न पाया मैं स्वयं को,
पारब्रह्म कैंसे जानूं
महामोह में फंसा हुआ,
ज्ञान प्रकाश कैंसे मानूं
अब चला चली की बेला है,
सोच रहा मन मेरा है
तेरा है न मेरा है,
यह तो दुनिया का मेला है
साथ समय के सोचा होता,
अमूल्य जिंदगी कभी ना खोता
महामोह की महा निशा में,
जमकर लगा रहा था गोता
अब समझा हूं समय नहीं है,
कब जाना हो पता नहीं है
समझो जीवन सार यही है,
मनुज जन्म का सुफल यही है
धर्म अर्थ और काम मोक्ष,
सत्य मुक्ति का मर्म यही है
सुरेश कुमार चतुर्वेदी