कब का छोड़ा गिद्धों ने नोचना
***कब का छोड़ा गिद्धों ने नोचना****
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शमशानों में हैं चिताएं ही जल रही,
इंसानों की साजिशें पल पल चल रही।
कब का छोड़ा है गिद्धों ने अब नोचना,
खुद ही है नोचने की रुत चल रही।
कुदरत के रंग कोई समझा नहीं,
कुदरत के है कहर की लू चल रही।
कितना इंसान स्वार्थी अब हो गया,
आपस मे लूट की आँधी चल रही।
ऑक्सीजन का सिलेंडर खाली हुआ,
सांसों की है खूब लाचारी चल रही।
हर पल ही मौत का डर लगने लगा,
ये ना ईलाज बीमारी चल रही।
मनसीरत घर पड़ा पागल हो गया,
मृत्यु की हर जगह वाही चल रही।
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सुखविंद्र सिंह मनसीरत
खेड़ी राओ वाली (कैथल)