कब आओगे तुम…
पलकें बिछी थी कोरों पर
सुवासित की झड़ी
उठ रही एक तरंग
मानस सागर में जो
उथल-पुथल करती
ह्रदय देती झकझोर!
उम्मीद और आशा की
तरंगों से प्लावित जलधारा
सी उठती एक हिलोर
जो बार-बार बस
यही पूछती…प्रिय
कब आओगे तुम!
अपने बंधन से मुक्त करोगे
सुवासित झड़ियों का फेन
फैलाओगे चारों ओर प्रेम
प्रकाश नभ के ओर-छोर..
.
शालिनी साहू
ऊँचाहार,रायबरेली(उ0प्र0)