कठिन बुढ़ापा…
हाय बुढ़ापे तू क्यों आया
जैसे बिन मौसम बरसात,
अभी उमंगे जवां थी दिल में
अभी वक्त था मेरे साथ,
अभी-अभी तो भरी जवानी
गई छोड़कर मेरा साथ,
अभी तो पोरूष भरा था तन में
जिंदा थे मन के जज्बात,
लेकिन निष्ठुर तूने आकर
क्यों निष्ठुरता दिखलाई,
जीवन बगिया ‘सुमन’ सरीखी
तुझे देख क्यों कुम्हिलाई,
जो मुझ पर कल तक मरते थे
आज कहें मैं हो जाऊं भस्म,
हर पल साल रहा है मुझको
कुटिल बुढापे तेरा जख्म,
था मुझको यह ज्ञात कि
इक दिन ऐसा भी आना है,
नन्हा बचपन, मधुर जवानी
फिर कठिन बुढ़ापा आना है,
आज मुझे भी मेरे अंदर
कुछ टूटा टूटा लगता है,
जिसे संजोया तन मन धन से
सब छूटा छूटा लगता है,
किन्तु नहीं है गम किंचित भी
मैंने किया वही जो करना था,
मेरा ईमां, मेरा मजहब
इक इंसानी जज़्बा था,
जो कल तक मेरा अपना था
वह बीते कल का सपना था,
मैं मिट्टी में खिला ‘सुमन’
मुझे मिट्टी में ही मिलना था।
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