कठपुतली
वाह रे विधाता !
तू क्या खेल रचाता है ।
पहले मनुष्य को जन्म देता है ,
फिर उसके रिश्ते बनाता है ।
रिश्ते बनाकर मोह का बंधन बंधता है।
और जब मनुष्य मोह के धागों में ,
पूरी तरह से जकड़ा जाता है ।
तो तू ऐसा निर्मम कुठारघात
उन रिश्तों पर करता है।
हमारे टूटे हुए शोक संतप्त ह्रदय ,
पर वक्त का मलहम लगाता है।
यह तेरा ऐसा चक्रव्यूह मनुष्य ,
उम्र भर फंसा रहता है ।
घुट घुट के मर जाता है ,
मगर शिकायत नहीं कर सकता ।
बेबस ,लाचार मनुष्य बेचारा !
कर भी क्या सकता है।
उसकी यही नियति है ।
तेरे हाथ की कठपुतली बने रहना ।
और खामोशी से सब कुछ सहना ।