कटु सत्य
ज़िंदगी कुछ थम सी गई है , दिन बोझिल लगता है, तो रात करवटें बदलते कटती है।
वही म़ाहौल , वही चेहरे , वही रोज का ढर्रा , कुछ नयापन नहीं ऊब चुका हूं ।
बहुत गा लिए , बहुत सुन लिए , बहुत खेल लिए , बहुत मनोरंजन कर लिए।
अब तो कोई भी मनोरंजन नागव़ार गुज़रता है।
हर वक्त किसी अज्ञात आशंका का भय रहता है।
त्रासदी ने हमें किस मोड़ पर खड़ा कर दिया है।
आदमी को आदमी से अलग कर दिया है।
जो भी देखता है कतरा के निकल जाता है।
जो जानता है पहचानता है , फिर भी वो अनजान बन जाता है।
सब अपनी अपनी व्यथा में घुट रहे हैं , किसी और से अपनी व्यथा प्रकट करने से डर रहे हैं।
शायद उन्हें पता है उनकी मदद के लिए कोई नहीं आएगा , उल्टा उनको चर्चा का विषय बनाएगा।
एक ओर महामारी, दूसरी ओर महंगाई , उस पर लोगों की बेरुख़ी की मार।
इस पर इलाज के नाम पर लूट खसोट का खुला बेमुरव्व़त व्यापार।
लगता है आदमी बीमारी से मरे या ना मरे , महंगाई और इस लूट खसोट से ज़रूर मर जाएगा।
क्योंकि उसका सब कुछ लुट जाने पर वो ज़िंदा कैसे रह पाएगा ?