कचरे का ढेर
कमाया ,
ठीक कमाया
और बहुत
कमाया ;
नाम भी , धन भी ।
अपनी कला से
किया लोगों का
मनोरंजन भी ।
नगर-नगर
गलियों-गलियो
में खूब
मचाई धूम ।
पुरस्कारों से
सजा, तुम्हारे
घर का
ड्राइंग-रूम ।
अब तुम
अपने-आप को
समझ बैठे
सरताज़ ।
वक्त़ को ही
मान बैठे
तुम , अपना
ही दास ।
वक्त़ ने बदली
जो , करवट ।
हुआ एक
सुंदर विस्फोट ।
नज़र आई
अब लोगों को
केवल तुम में
खोट ही खोट ।
पुन : तऱाशा
गया तुम्हें जो
निकला बस
“कचरे का ढेर” ।
छि:-छि: करती
जनता तुमसे ।
कचरे से जो
निकली गंध
नाक बंद कर
सबने थूँका ।
पोस्टरों और चित्रों
को, लोगों ने
अग्नि में फूँका ।
वातावरण
हुआ सब दूषित ।
हुए आप जो
आज कलंकित ।
क्यों? ………
क्यों ?………
क्योंकि –
साधन के ही
तुम साधक थे ।
स्वारथ के तुम
आराधक थे ।