और मौन कहीं खो जाता है
दर्द -एक आम आदमी का
एक आम आदमी का – दर्द
गीली लकड़ी में लगी
आग सा होता है
लपट तो कम होती है
घर सारा धुआँ -धुआँ सा होता है
मन की बात ठीक से
सुलगती भी नहीं
बार बार फूँक मार के भी
सिर्फ़ चिंगारियाँ चटकती हैं
दहक ही नहीं पाती है
मिट्टी तेल तो
लहू से भी महँगा है
मन जब भी थोड़ा सुलगता है
सर्द मन का बेबस दर्द
गीली लकड़ी की ही तरह
बस चिंगारियाँ ही चटकाता हैं
दहकने की कोशिश में
सिर्फ़ खून है जो जल जाता है
और फिर मन मार के “मन “
एक गहरे धुँये में
मौन कहीं खो जाता है
~ अतुल “कृष्ण”