औरत
एक औरत के हैं रंग हज़ार
कभी मीरा के पद , कभी लक्ष्मीबाई की दहाड़ ।।
कभी सृजनकर्त्री , कभी दुर्गा की तलवार
औरत के हैं रंग हजार ।
नन्हे पाँव से आती बिटिया
डोली में चली जाती है ।
समग्र लुटाये सपने अपने
निसदिन खुश रह लेती है ।।
माँ बनती है पिता के अपने
जब भी वो “घर” आती है
पी के घर में लक्ष्मी जैसी
उर्वर वो हो जाती है ।।
नई दिशायें दिखाती जननी
झट से बच्ची बन जाती है ।
सर झुकाके..,हँसी में अपने
सारे गम पी जाती है
औरत के है रंग हजार
कई रिश्ते वो निभाती है
एक साथ पत्नी व माता वो कहलाती है ।।
उससे पूछो उसकी हालत तो बच्चों की हँसी गिनाती है
भूख उसे लगी हो पहले , घर को पोषण करवाती है
भूखी अन्नपूर्णा , थक के यूँहीं सो जाती है ।।
एक औरत के हैं रंग हजार
कभी कुलटा कभी देवी सी पूजी जाती है ।
……अर्श