औरत ही है औरत की दुश्मन
क्यूं सिखा दिए तुमने पैदा होते ही उसको औरत होने के सब पैमाने,
कि ज़रूरी हैं तुम्हारे लिए चांद सी सूरत होना, ममता की मूरत होना, त्याग और लज्जा के गहने पहनो, सीखो रसोई के ताने बाने।
लक्ष्मी की पूजा करने की सिखा दी सब रस्में,
पर कमाने की ज़िद की उसने तो बांध दिया उसे देकर कसमें।
जीवन भर जिन बेड़ियों में तुम रहीं, अब उसे भी उसमें बांधने को क्यों हो तैयार।
क्यूं नहीं भेज पाई तुम उसको उड़ने को घर से बाहर।
मां की ममता की तो सब देते दुहाई हैं,
फिर क्यों कोख में एक औरत एक औरत ने ही मरवाई है।
पुरुषों से क्यूं लड़ रही तुम बराबर का हक पाने को, क्या नहीं मारा था ताना
तुमने उस पड़ोस की लड़की को जब वो निकली थी घर से कमानें को।
स्त्री होकर भी क्यूं नहीं पढ़ पाती तुम दूसरी स्त्री का मन,
क्यूं कहता है समाज कि औरत ही है औरत की दुश्मन।