औरत तेरे रूप अनेक
बेटी बन कर तुमने अपने।
पिता का घर महकाया है
भाई की सूनी कलाई को ।
राखी से तुमने सजाया है ।
बाबा, दादी, चाचा, चाची ।
ताऊ, ताई की प्यारी थी ।
सब कहते हुए न थकते थे ।
तुम उनकी राज दुलारी थी
तितली बनकर जो उड़ती थी ।
अपने घर के ,हर कोने कोने में ।
ससुराल पहुंच कर वो बेटी ।
फिर सिमट गई एक कोने में।
बेटी से फिर वो बहू बनी ।
बहना छूटी तो नन्द मिली।
भाई छूटे तो जेठ मिले
फिर नई कहानी शुरु हुई ।
भाभी, चाची , मामी, काकी ।
रिश्ते तो यहां पर अनेक मिले ।
न जाने कितने नाम मिले ।
पर अपना न कोई वजूद मिला ।
रिश्ते तो उसे अनेक मिले।
पर हर रिश्ता बस नाम का था।
जिसको वो अपना कह सके ।
ऐसा न कोई पास में था ।
जब पहली बार वो मां बनी ।
मानो खुशियों का उसे संसार मिला।
बच्चे के आने की आहट से ।
तन और मन उसका निखर गया ।
फिर जैसे उसको बेटी हूई ।
घर में सबके मुंह लटक गए
वो अपनी बेटी को गोद लिए।
सबके ताने को सुनती रही
मां की ममता को किसी ने न सोचा।
सब अपनी अपनी कहते रहे ।
सबके लिए वो खड़ी रहे ।
तो बहुत ही अच्छी लगती है ।
जरा अपने लिए जो खड़ी हुई
वो औरत सबसे बुरी है ।
क्या औरत की यहीं कहानी है ।
होंठों पे हसीं और आंखों में पानी है
मायके वाले कहते हैं कि बेटी पराया धन है । और ससुराल वालों के लिए पराए घर से आई है ।क्या एक औरत की यहीं कहानी है ।
रूबी चेतन शुक्ला। लखनऊ नोट – जो मैंने अपने आस पास देखा और महसूस किया वहीं लिख दिया