औरत तेरी कहानी
औरत तेरी आज भी है वही कहानी
आँचल में है दूध आँखों में रहे पानी
सदियों से चलता आ रहा है यह रंज
कभी ना कभी ये कहानी होगी पुरानी
मनभावों को ना मिले उनके तवज्जों
घर में ही बन बैठी महारनी नौकरानी
प्रभात पहले है उठती देर रात हैं होती
फिर भी कहे नहीं जिम्मेदारी निभाती
प्रकृति की सबसे सुन्दर श्रेष्ठ है रचना
क्यों नहीं होती सम्मानित बेचारी नारी
अबला थी पहले अब भी है ये अबला
कब बनेगी सबला सदा ठगती ये नारी
पुरुषों के अधीनस्थ है जीवन बीताती
सुता बहन पत्नी माँ हर रूप में नारी
निज हसरतों को सदा रहती दफनाती
ये हसरतें कभी तो पूरी होंगी तुम्हारी
मायके में पराई ससुराल में भी पराई
कौनसी वो दुनिया जो है सिर्फ तुम्हारी
सभी की कार्य अवधि होती है निश्चित
नारी में ऐसी शक्ति,है दिन रात चलती
सृष्टि पर रब्ब की दृष्टि में हैं उत्तम कृति
आज भी समाज में क्यों कुंठित है नारी
आज भी दरिंदों के कहर से नहीं बचती
कब तक रहेगी असुरक्षित कोमल नारी
सुनते है चाव से मोदी के मन की बात
कब सुनेगा औरत मन की बात तुम्हारी
बदला जमाना बदल गई है ये कायनात
कब बदलेगी औरत दिशा दशा तुम्हारी
कर लो कुछ होश बदलो अपनी सोच
फिर देखो कहाँ पहुँचती है नारी हमारी
नहीं चाहिए कुछ बदले में स्त्री रत्न को
प्रेम मान सम्मान की बस भूखी है नारी
उस दिन होगा वो देश सचमुच विकसित
जिस देश में होगी सम्मानित महान नारी
सुखविंद्र सिंह मनसीरत