औक़़ात सेे मैैंं बढकेे कभी मांंगता नहींं
औक़ात से मैं बढके कभी मांगता नहीं
बेजा कोई भी रब से मेरी इल्तिजा नहीं
मैं मानता हूँ आप मसीहा तो हैं ..मगर
मेरा वो दर्द है कि है जिसकी दवा नहीं
जख्मों में गर हमारे इज़ाफ़ा न कर सको
ऐसे इलाजे दर्द…. का कुछ फ़ायदा नहीं
कहने को आसमान ..भी है ज़ेरे पा मेरे
चलने को इस ज़मीं पे मगर रास्ता नहीं
मुझको चराग़ और हवा दोनों …चाहिये
ज़िद है ये मेरी रब से कोई इल्तिजा नहीं
दीवानगी में हद… से गुज़र जायेंगे मगर
दीवावगी की हद का हमें कुछ पता नहीं
मैं जानता हूं झील…. सी आँखें हैं आपकी
लेकिन मैं क्या करुं कि ये दिल डूबता नहीं
कल पर अगर न टालता हर एक काम को
अपने नसीब को मैं …..कभी कोसता नहीं
सर बारगाहे नाज़ में झुकता है बस मेरा
मैं पत्थरों को अपना खुदा मानता नहीं