ओ मनहूस रात…भोपाल गैस त्रासदी कांड
ओ मनहूस रात…भोपाल गैस त्रासदी कांड
विश्व का सबसे दर्दनाक तांडव ….
वो 2 दिसंबर 84 की दरमियानी मनहूस रात ।
सुकून से सोता शहर भोपाल के रात एक बजे की बात।।
हवा में नमी जोरों की ठंडकता ।
सूनी मांग की तरह शांत, खाली था प्रायः हर रास्ता ।।
कि इस शताब्दी के सबसे दर्दनाक तांडव का
जन्म हुआ-
हवा के झोंके जो जिंदगी देते थे, मौत की नींद सुलाने पर तुल गये ।
जहरीली गैस के रूप में यमराज के द्वार खुल गये ।।
जीवन दायिनी हवा भी मौत का कफन हो गयी ।
जीते जी जिवित जिंदगी दफन हो गयी ।।
गैस फैलने की दिशा के घर और गली मौत की चपेट में आ गई ।
ओ मिथाइल आइसोसाइनेट जहरीली गैस निर्दयी होकर कहर ढा गई ।।
आदमी, पशु -पक्षी तक जो जिस हाल में थे,
जीने की आस लिए भागने लगे ।
निर्बल और बेबस मुक्ति के लिए ताकने लगे ।।
इधर हर घर और गली में हाहाकार हो रहा था ।
उधर जिम्मेदार मजे से सो रहा था ।।
मौत की उस महक से दूर सपनों के नगर में ।
आया भूचाल था उधर सारे शहर में ।।
जिंदगी और मौत के बीच युद्ध घमासान हो गया ।
जिंदा भोपाल शहर क्षण भर में श्मशान हो गया ।।
एक जिम्मेदार आदमी ने प्रयास करने के लिए थोड़ी हिम्मत जुटाई ।
कलाई पकड़कर पत्नी बड़बड़ाई ।।
महज हमदर्दी के लिए क्यों ये रिस्क उठा रहे हो ।
खुद ब खुद औरों के लिए मौत के मुंह में जा रहे हो ।।
और इस तरह कुंए में दूध डालने वाली
कहावत की तरह , सब एक दूसरे का मुंह ताकते रहे ।
जहरीली गैस के उस आलम में अंधे होकर लोग
मौत का कुंआं झांकते रहे ।
उल्टी, खून, आँखों में जलन,
और लाशों से राहें भर गई ।
देखकर अमानवीय तांडव हमदर्दी भी घुटकर मर गई ।।
जनता कीड़े-मकोड़े की तरह बिलबिला रही थी ।
मौन मौत की ओर जाती सिर्फ उनकी हरकत चिल्ला रही थी ।।
उस जहरीली गैस की हवस के शिकार लोग
अंधत्व से ऐसे चल रहे थे ।
कि जिंदा आदमी ही आदमियों को कुचल रहे थे ।।
घूटती सांसे भी मानवता को नाप गई ।
देखकर दर्दनाक कहर मौत भी कांप गई ।।
देखकर ओ खौफ़नाक मंजर ।
दहल गया दरिया, सहम गया समंदर ।।
मगर किसी ने इन निरीहों पर ध्यान नहीं दिया ।
मौत के डर से घर से बाहर जाने का नाम नहीं लिया ।।
याद तब आयी जब बहुत हो चुका था ।
ओ घातक तांडव अपना काम कर चुका था ।।
लाशें कंकड़-धूल की तरह सड़कों पर बिछ गयी थी ।
टंकी से गैस नहीं शायद मौत रिस गयी थी ।।
विश्व के लिए यह एक और हिरोशिमा की घटना बनकर आगे आयी ।
लकड़ी से लाशें नहीं लाशों के ढ़ेर में लकड़ी जलाई गयी ।।
ट्रकों और गाडियों में गठ्ठर की तरह इंसानी लाशें फिंक रही थी ।
इंसानों के द्वारा इंसानियत देखो कैसे बिक रही थी ।।
मौत के अंजाम से दूर ठेकेदार ।
हो गए फरार ।।
जिन्होंने भी ये जाना वे कराह उठे-
कि स्वार्थ और लालच भी इतनी घिनौनी हो गई है ।
कि कर्तव्य और जिम्मेदारी उसके सामने बौनी हो गई है ।।
मुआवजे देकर लोग किनारे हो गये ।
वो मूक दर्द के लिए मारे बे सहारे हो गये ।
ऐसे वक्त में भला इससे बेहतर क्या होती है सजा ।
खेद, सहानुभूति, वादा और मुआवजा ।।
और सुनो दोस्तों उन मजलूमों का इनाम
जिनने खो दी अपनी जिंदगी की हर सुबहो शाम
उस तांडव में भ्रष्टाचार भी मजबूर होकर कटिबद्ध हो गया ।
सजा के नाम पर उस विनाशकारी, हत्यारी कम्पनी का सिर्फ लायसेंस रद्ध हो गया ।।
आप ही बताइये हत्यारे एैसे ही बख्शे जायेंगे ।
तो कल भोपाल ही नहीं सारी दुनिया के लोग यूँ ही मारे जायेंगे ।।
सजा के तौर पर सिर्फ कहीं लायसेंस रद्ध होंगे ।
तो फिर सिफारिश के साथ लायसेंस पंजीबद्ध होंगे ।।
राहत जारी है पर जिंदा जख्म नहीं भर रहे हैं ।
कहते हैं कि आने वाली नश्लों पर भी उस जहरीली गैस के दुष्प्रभाव उभर रहे हैं ।।
स्मृतिशेष जिंदगी अब भी चीखती है, चित्कारती गली है …..
जो त्रासदी के शिकार हैं उन्हें अश्रुपूरित श्रद्धांजलि है…..