ओ प्रियतम, सुनो ना—
…ओ प्रियतम, सुनो ना…। तुम्हारी छुअन के बिना मैं कैसी सूख सी गई हूं। तुम मुझे यूं ऐसे बिसरा गए हो कि अब कहीं मन नहीं लगता। ये तन, ये यौवन, ये केश सब के सब रेगिस्तान की रेत में गहरे उतरकर अब भी तुम्हारे अहसासों की शीतलता में जी रहे है। देखो, देखो ये मेरा शरीर, मेरा तन…ये सब पत्थर हुआ जा रहा है, ये विलाप मुझे अक्सर अपने आप में तुम्हें खोजने की जिद करता है लेकिन मैं पगली ये तय नहीं कर पाती कि मैं तुम्हें खोजूं या नहीं…। मन कहता है तुम मुझमें ही तो हो, बाहर तो नहीं…। विचारों का वेग कहता है कि मन में हो तो मिलते क्यों नहीं ? मन कहता है तुम्हें खोजना जैसे प्रेम की परीक्षा है…। मैंने तुमसे प्रेम तुम्हें परखने के लिए तो नहीं किया, तुम्हें अहसासों में गहरे उतारा है, मैं जानती हूं तुम कहीं किसी गहरे तूफान के बीच हो, संभवतः तुम अपने आप से जूझ रहे हो…। मैं तुम्हें खोजने कहीं नहीं जाउंगी, ये तन भले ही जड़ हो जाए, पत्थर हो जाए…। मैं जानती हूं तुम्हारी एक छुअन मुझे दोबारा हरा कर देगी, मैं जी उठूंगी, मैं खिल उठूंगी तुम्हारी छुअन से…। देखना तुम बरसोगे, मैं तुम्हारी बूंदों में जीवन को देखती हूं…तुम्हें बरसना होगा।
संदीप कुमार शर्मा