ओढ़नी
ओढ़नी
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रात दौड़ती है रोज़, उन अनजान गलियों में,
किसी सन्नाटे का डर, जैसे पसरा है वहाँ,
चाँद की रोशनी में कोई क्या देखेगा उसे,
तमाशबीन तारों का भी,एक ऊपर है जहां,
हवा भी हल्की सी सहमी सी चलती है,
शोर मचाते झींगुर भी,ना जाने- उड़ गए कहाँ,
वो घबराई सी दीवारों से चिपक कर चलती थी,
उसकी इज्जत का रखवाला,न कोई था यहॉं,
हर पत्ता खामोश,सहमा,अकड़ा सा पड़ा था,
हाय बुरा वक्त वहीं उसकी मंज़िल पे खड़ा था,
वही आगे गली में, दो राक्षस, खड़े थे विशाल,
देखा जो मासूम को,वहीं कर दिया तार तार,
वो पड़ी थी अधमरी सन्नाटे में,चाँद को निहारती,
इसीलिए क्या पूजा था,वो रोती, कोसती,चिल्लाती,
शांत, डरा सहमा सा, कलयुग मुँह मोड़े खड़ा था,
आसमाँ भी किसी क्षितिज में,दुबका सा पड़ा था,
अपनी आखरी साँसों में थी,वो बिन पंख की मोरनी,
आज रक्त रंजित चीथड़ों में,पड़ी थी उसकी ओढ़नी…
©ऋषि सिंह “गूंज” ◆◆