ऑंधियों का दौर
पाषाण युग से आधुनिक युग तक, सभ्यताओं का उद्भव हुआ।
विकास की इस लंबी यात्रा में, जिज्ञासा से ही सब संभव हुआ।
कभी समय संग कदमताल करे, तो कभी पीछे-पीछे चलता है।
ये तथ्य है वैश्विक अटल सत्य, हर किसी का समय बदलता है।
कोई भी युग हो, कोई भी जग हो, केवल समय ही महापौर है।
समय उल्टी चाल चल रहा, आजकल बस ऑंधियों का दौर है।
सामाजिक विस्तार के क्रम में, हर जीव का संघटन शुरू हुआ।
जन-जन से परिवार बनते गए, कुछ ऐसा परिवर्तन शुरू हुआ।
परिवारों में दीवारें खिंच गई, अपना अलग प्रबन्धन शुरू हुआ।
फिर उल्टी दिशा में चलते हुए, परिवारों का विघटन शुरू हुआ।
आज सभी पृथक हो गए, सबके अलग मशवरे, अलग तौर हैं।
समय उल्टी चाल चल रहा, आजकल बस ऑंधियों का दौर है।
परिवारों के इस मनमुटाव का, सारे बच्चों पर असर पड़ता रहा।
उसका खिलखिलाता बचपन, घर की अनबन से ही लड़ता रहा।
आज बच्चे नए शौक में पड़कर, छोटी उम्र में शैतान हो गए हैं।
उनके बिना स्कूल, घर-आंगन और मैदान भी वीरान हो गए हैं।
बच्चों का बचपन छिन चुका, क्या तुमने इस पर किया गौर है?
समय उल्टी चाल चल रहा, आजकल बस ऑंधियों का दौर है।
घर में बच्चों के बड़े होते ही, अलग होने की आवाज़ उठती है।
कल जिन ख्वाहिशों को छिपाया, आज वो ज़ाहिर हो उठती हैं।
फिर वही चक्र चलने लगे, अलग व बंद कमरों का खुला खेल।
भावनाओं और संवेदनाओं का, कहीं भी न होता परस्पर मेल।
समय रहते समय को बचाइए, अब हर तरफ़ बस यही शोर है।
समय उल्टी चाल चल रहा, आजकल बस ऑंधियों का दौर है।