ऐ शहर ए अमीर
ऐ शहरे-अमीर गरीबों के दिल से खेलना छोड़ दे
हम जैसे भी हैं तू हमें अब उसी हाल में छोड़ दे
थक सा गया हूं यूं रोज टूटकर बिखरने से मैं
मैं जी लूंगा फिकर न कर तू मुझे अकेला छोड़ दे
इस तरह तेरा साथ होने से तो न होना अच्छा है
अब दर्द सहा जाता नहीं तू जुल्म करना छोड़ दे
अब मां का पल्लू नसीब नहीं है इस उम्र ए दौर में
आंख लगती नहीं इल्तजा है नींदें चुराना छोड़ दे
तेरे शहर की हवायें मेरे जख्मों को छू निकलती हैं
मैं कराह उठता हूं तू अब इन्हें कहीं और मोड़ दे
तेरे साथ रहने के सपने देखे जो पूरे न हों कभी
अहसान होगा तेरा तू गर ख्यालों में आना छोड़ दे
मुझे मुद्दतों बाद मिला वो अब काफी बदल गया है
मैं जिंदा रहूँ चाहता है तो इस कदर मिलना छोड़ दे
कितना जलाओगे दिल है कोई मशाल तो नहीं
मन भर गया हो गर तेरा तो दिल जलाना छोड़ दे
वेगुनाहों का कत्लेआम कर तू खुश हो रहा है
जन्नत नसीब नहीं होगी तू नवाजें पढ़ना छोड़ दे
वेखॉफ शायर :-
राहुल कुमार सागर
“बदायूंनी”