ऐ! मेरे साए
ऐ! मेरे साए तू किसको साया देता है?
कभी तन को छोड़
कभी मुझसे लिपट
खोए मुझमेँ इस तरह
सन्ध्या की ललित
एहसास भी है अब कुछ छुअन का
किरणेँ झलकाती मेरी आकृति
आकृति की विवश मायूषी
छोड़े जब जग का मोह
प्राण का शरीर से नाता सब
खत्म होता है अग्नि मेँ जलकर
अस्थियाँ बनाती राख की कृति
क्या तू इसमेँ नव प्राण भरता है?
ऐ! मेरे साए तू किसको साया देता है?
-शिवम राव मणि