एक सोच
जिन्दा था जब में तो किसी ने पास अपने कभी बिठाया नहीं
अब खुद मेरे चारों तरफ बैठे जा रहे हैं
पहले किसी ने भी मेरा हाल कभी पूछा नहीं
अब देखो, सभी आंसू बहाए जा रहे हैं !!
एक रूमाल भी भेंट किया नहीं कभी जब जिन्दा थे
अब शाल और कपडे ऊपर से ओढ़ाये जा रहे हैं
सब को पता है यह शाल और कपडे नहीं हैं इस के काम के
फिर भी बेचारे दुनियादारी निभाये ही जा रहे हैं !!
कभी किसी ने एक वक्त का खाना भी नहीं खिलाया
अब मुंह में देसी घी मेरे डाले ही जा रहे हैं
जिन्दगी में एक कदम भी साथ न चल सका कोई
अब फूलों से सजाकर कंधे पर उठाये जा रहे हैं !!
अब जाकर पता चला है कि मौत जिन्दगी से बेहतर है
“अजीत’ तुम बेवजह ही जिन्दगी कि चाहत किये जा रहे थे..!!
कवि अजीत कुमार तलवार
मेरठ