ग़ज़ल 3
एक साँस भी जब तक साहिबान बाकी है
ज़िंदगी के पर्चे का इम्तहान बाक़ी है
कितनी सच है ये दुनिया कितनी सच है वो दुनिया
बस इसी पहेली का तो निदान बाक़ी है
डूबने से रुक जाए आज शाम को सूरज
इक परिंदे की नभ में जब उड़ान बाक़ी है
रो पड़े हैं महफ़िल में फूट-फूट कर सारे
ज़िक्र ही तो छेड़ा है, दास्तान बाक़ी है
मर गया है वह लेकिन पाप उसके ज़िंदा हैं
सहने को ज़लालत अब ख़ानदान बाक़ी है
ज़लज़ले ने कितनी ही बस्तियाँ उजाड़ी हैं
नींव जिसकी गहरी थी, वो मकान बाक़ी है
वो ‘शिखा’ समझता है जीत लेगा दुनिया को
साँस छूटने को है पर गुमान बाक़ी है