‘एक सयानी बिटिया’
मन में छुपी थी खुशी अथाह,
दुखः की न थी कोई परवाह।
पौलीथीन तने तंबू के नीचे भी,
झलक रही थी जीने की चाह।
मुख मैला पर उत्साह घना था,
तन का पट कई जगह छना था।
उलझी सी लटें संवार रही थी,
हाथ में उसके टूटा आइना था।
आँखें काली सूरत सांवली थी,
नैन नक्स में दिखती भली थी।
बैठी थी लिए साग तरी कटोरी,
रोटी संग छोटी गुड़ की डली थी।
स्वर या व्यंजन को वो ना जाने,
पोथी में क्या है वो ना पहचाने।
चतुर सयानी लगती थी बिटिया,
गाती थी मीठे मीठे गीत पुराने।
गहरी नींद ले बेफिक्री से सोती,
कल क्या होगा कभी न रोती।
दुख के गिट्टे उछाल रोज खेलती,
खुशियों के जीवन में दाने बोती।
स्वरचित
-गोदाम्बरी नेगी (हरिद्वार उत्तराखंड)