एक समय बेकार पड़ा था
एक समय बेकार पड़ा था
🌵🌵🌵🙏✍️
कांटो से भरा संसार था
पथ संगीन चुभन दर्दनाक
पढ़ा लिखा जानकार था
पर बी.ए एम. ए. पास था
सरकारी सेवा की आस में
घूम रहा था इधर उधर आस
पास पर घर पड़ा बेकार था
बेरोजगारी का भरमार कमर
तोड़ महंगाई का फुफकार था
दो जून रोटी का मुहताज था
माता पिता लाचार हो पड़ा था
आमदनी अठन्नी खर्चे रुपया का
छिपा आमदनी स्रोत बंद था
पढ़ना लिखना खर्च अपार था
नाना न नानी दादा न दादी
बचा नहीं कोई सहारा था
परिजन ईर्ष्या में नहीं पढे ये
चलते फिरते साजिश विविध
उलझनों में फॉसता रहता था
घर खाली पड़ा बेजान था
मिट्टी लकड़ी का दीवार था
छत नहीं पड़ा खर पतवार था
कटीली झाड़ी का बंधनवार था
रात दिन का कोई मतलब नही
वर्षी रानी बड़ी स्यानी दे जल
बूंद बूंद छत पानी टपका रहा
आड़ इंतजार में जन पड़ा था
तारे चाँद छिप अंधेरे में झांक
घर कोने के गड्ढे मिट्टी चुल्हे
बारिश बुला पानी भर रहा था
पके कैसे परिवार का खाना सोच
मां बहन कटोरे से पानी उपछ
गीले लकड़ी उपले खर पतवार
फूंक फूंक आग सुलगा धुएँ से
आंख खारिज मल मल कर
चूल्हे में धूमिल आंच ओस धुएँ
अग्नि से भोजन पक पक मधुर
स्वाद जठरानल ताप बढ़ा रहा
बच्चों पेट भूखे चूहे कूद क्रदन
मां को रुला आंचल से आंसू
पोछ लाल कलेजे लगा रही थी
नन्हा विवस मां को देख धैर्य से
पानी पी नन्हे हाथों आंसू पोछ
पढ़ाई लिखाई से दिवा स्वप्न देख
आमदनी स्रोत की सोच कर रहा
किस्मत से सेवाश्रम पा आज
परिवार आस अरमान पूरा कर
अतीत भूल वर्तमान में ही सही
भविष्य योजना मंथन कर रहा
सोच जरा ! भारत के नवयोवन
कर्मयोग से कर्मवीर बन तू मत
घबराना क्योंकि बेरोजगारी में
ही भोजन का रोजगार छिपा है
पूछो उन रोजगारों से कौन नही
पढ़ लिख बेकार बेरोजगारी में
रोजी रोटी तालाश कर रहा था
🌿🌿🔥🌿🌿🙏🌿✍️✍️
तारकेश्वर प्रसाद तरुण