‘ एक सच ये भी है ‘
ये सुबह बहुत डराती है
मगर ये काली अंधेरी रात
दिल को भाती है ,
बस ये रात ठहर जाये
कैसे भी करके ये
सूरज को निगल जाये ,
नही तो अगली सुबह
वो फिर से आयेगा
और बेहद थका जायेगा ,
थकते थकते ज्यादा ही
थक गई हूँ
इस थकान से पक गई हूँ ,
मन से काम करो तो
एक उत्साह रहता है
नही तो उत्साह ख़ाक रहता है ,
कोई नही समझता
किसी के मन के दर्द को
अब कहाँ ढ़ूंढ़ूँ अपने हमदर्द को ,
सारा खेल मन का ही तो है
शरीर का थका तो चल जाता है
मन का थका तो मर जाता है ।
स्वरचित एवं मौलिक
( ममता सिंह देवा , 18/02/2021 )